प्लवन्ते परतरा निरे मानवा घ्ननंति राक्षसान्
कपय: कर्म कुर्वन्ति कालस्य कुटिला गति :
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समय समय बलवान है नहीं पुरुष बलवान
काबे लुंटी गोपिका एहि अर्जुन एहि बान
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રાગ :- ભૈરવી ,, ભક્ત કવી સુરદાસના ભજન
नॉथ कैसे गजको बांध छुड़ाओ
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संतो भाई समय बड़ा हरजाई समयसे कौन बड़ा मेरे भाई
संतोभाई समय बड़ा हरजाई ..१
राम अरु लछमन बन बन भटके संगमे जानकी माई
कांचन मृगके पीछे दौड़े सीता हरण कराई। …संतोभाई। …२
सुवर्णमयी लंका रावणकी जाको समंदर खाई
दस मस्तक बीस भुजा कटाई इज़्ज़त खाक मिलाई , संतोभाई ,३
राजा युधिष्ठिर द्यूतक्रीड़ामे हारे अपने भाई
राज्यासन धन सम्पत्ति हारे द्रौपदी वस्त्र हराई ,,संतोभाई ..४
योगेश्वरने गोपीगणको भावसे दिनी विदाई
बावजूद अर्जुन था रक्षक बनमे गोपी लुंटाई ,,,संतोभाई ५
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जलारामकी परीक्षा करने प्रभु आये वरदाई
साधुजनकी सेवा करने पत्नी दिनी वीरबाई …संतोभाई ..६
आज़ादिके लिए बापूने अहिंसक लड़त चलाई
ऐसे बापूके सीने पर हिंसाने गोली चलाई …..संतोभाई। .७
देशिंगा दरबार नवरंगसे गदा निराश न जाइ
समा पलटा जब उस नवरंगका बस्तीसे भिक मंगाई …संतोभाई। .८
विक्रमके दादाकी तनखा माहकी बारा रुपाई
विक्रम खुद्की एक मिनिटकी बढ़कर बारा रुपाई …संतोभाई ..९
तान्याकी ग्रेट ग्राण्ड मधरथी नामकी झवेर बाई
हज़ारो नग़मे उनकी जुबां पर कैसे हो हरिफाई …संतोभाई १०
प्रभाशंकर उमरमे छोटा था वो मेरा भाई
कठिन समस्या हल करके वो अफ्रीका अमेरिका जाइ …संतोभाई ११
पानी भरकर बर्तन सरपर दौड़की हुई हरी फाई
जवां लड़कियां पीछे रह गई भानु पहली आई ….संतोभाई ..१२
पानीका झगड़ा पोलिस लाइनमे होताथा मेरे भाई
दलपतरामने भानुमतिकी नलसे डॉल हटाई …..संतोभाई ..१३
रणचंडीबन भानुमतीने अपनी डॉल उठाई
दलपतरामके सरमे ठोकी लहू लुहान हो जाई …संतोभाई .. १४
अब वो भानु चल नहीं सकती निर्बल होती जाई
अपने हाथो खा नहिसकती कोई खिलावे तो खाई ..संतोभाई ..१५
दो हज़ारसात अगस्तकी जब दूसरी तारीख आई
इस फानी दुनियाको छोड़के हांङे लीनी विदाई ..संतोभाई ..१६
भानुमति जब स्वर्ग गई तब उदासीनता छाई
गोरी लड़की आन मिली जब मायूसी चली जाई …संतोभाई ..१७
नंगे पाऊँ बकरियां चराई कॉलेज डिग्री पाई
कोलगेटने उसकी कला परखकरनईनई शोध करवाई .. संतोभाई १ ८
घरमे बैठकर लिखता पढ़ता यार्डमे करता सफाई
सुरेश जानीने उसकी कलाको जग मशहूर बनवाई ..संतोभाई १९
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सुन्नी सद्दाम हुसैनको इक दिन समयने गद्दी दिलाई
कुर्द शिया को मार दिए जब समयने फांसी दिलाई ….संतोभाई ..२०
गोर्धनभाई पोपटने इक दिन सिहंण मार गिराई
अब गोरधन भाई निर्बल हो गए मख्खी उड़ाई न जाई .. संतोभाई ..२१
इक गुजरती पटेल सपूतने श्रीजीसे माया लगाई
श्रीजी आके हृदय बिराजे तब कई मंदर बन जाई ..संतोभाई ..२२
भगवान एक्टरने अपनी अलबेला मूवी बनाई
नाम कमाया दाम कमाया अंत करुण हो जाइ ….संतोभाई ..२३
ग्रीस देशके सिकन्दरको समयने जीत करवाई
जब गयाथा छोड़के दुनिया खाली हाथो जाई ..संतोभाई ..२४
काले कर्म तूने बहुत किए थे जब थे बाल काषाई
अब तुझे सुधर जाना होगा बालने सफेदी दिखाई …संतोभाई २५
स्टेशन ऊपर नरेंद्र मोदी बेचता था वो चाई
समयने उसको साथ दिया तब वडा प्रधान हो जाई। .संतोभाई ..२६
देख तपस्या विश्वमित्रकी इन्द्रको ईर्षा आई
इन्द्रने भेजी अप्सरा मेनका तपस्या भंग हो जाई। ..संतोभाई। .२७
ऋतुमती मेनका ऋषिको भेटि ज़ोरसे बाथ भिड़ाई
मेनका ऋषि विश्व्गामित्रसे टगर्भवति हो जाई ..संतोभाई ..२८
शकुन्तलाका जन्म हुवा तब ऋषिको देने आई
ऋषीने साफ़इन्कार किया तब कण्वमुनिके पास जाइ …संतोभाई २९
छोटी शकुंतला कण्व मुनिके आश्रममे जब आई
कामधेनुका दूध पि करके जल्द जवाँ होजाई ….संतोभाई ..३०
सब कोई सहायक सबल जनके निर्बलके न सहाई
पवन झगावत अगनजवाला दि९प्क डेट बुझाई …संतोभाई ३१
अप्सराकी आशासे बुढा तपस्या करने जाई
अप्सरा न आई ठंडी आई सख्त जुकाम हो जाई। .संतोभाई ३२
जब तक रहो दुनियामे ज़िंदा काम करो मेरे भाई
इतना ज़्यादा काम न करना काम तुझे खा जाई ..संतोभाई .. .३३
लिखना पढ़ना काव्य बनाना येतो है चतुराई
काम क्रोध मन बश कर लेना अति कठिन है भाई ..संतोभाई ३४
समदरको मीठा करदेना कार्य कठिन संतो साईं
अपने आपको मीठा करनेमे है अति कठिनाई ..संतोभाई ..३५
प्रेमका रास्ता अति कठिन है पूरा न होने पाई
फंस गया मजनू घोर जंगलमे फरहाद न परबत लाई .संतोभाई .३६
गर्भमे था जब तू माताके रक्षा करती माई
बीबी बच्चे पैदा हुवे तब माँ को दिनी विदाई ….संतोभाई ..३७
भक्ति इक दिन काम आएगी बात अच्छी बतलाई
विवश होके मरते देखे काम न आई भक्ताई ..संतोभाई। ..३८
चड़स शराबकी बुरी आदत है जल्दीन छूटी जाई
उसका संग करने वालेको जल्द क़ज़ा ले जाई ..संतोभाई ३९ क़ज़ा = मोत
अच्छे काम करो दुनियामे इच्छो सबकी भलाई
हो सके उतनी मदद करो तुम छोडो दिलकी बुराई ..संतो भाई ..४०
निहाँ रख्ख अपने लुत्फ्को बाबा किसे न कहो हरषाई
हासीदतो जल जाएंगे लेकिन तुझको देंगे जलाई ..संतो भाई ..४१
ग़रज़के यारो हो जाते है ग़रज़ पटे चले जाई .
सच्चा दोस्त जो होगा अपना साथ रहेगा सदाई … संतोभाई ..४२
प्रेमका तंतु अति नाजुक है मत तोड़ो झटकाई
टूट जाने पर जुड़ता नही है जुड़े तो गाँठ रहजाई ..संतोभाई ..४३
नंगा भूका सो रहताथा जब थी तुझे ग़रीबाई
अब वो दिन तेरे पलट गए है मत करना कँजूसाई … . ४४
शेरको दंडवत प्रणाम करे और चूहा डराने जाई
ऐसेभी इन्सान होते है लोमड़ी जैसे भाई ,,,संतोभाई ….४५
पतिवृता पहने टूटे वस्तर वैश्या सुभट सोहाई
दूध बेचनको घर घर भटके बैठे मद्य बिकाई। …संतो भाई ..४६
कम्प्युटरमे लिखतथा तीन भाषामे कविता बनाई
गिर पड़ा सीमेंट कोंक्रीट ऊपर हिपकी(hip ) हड्डी टूट जाई ..४७
बग़ैर मर्जीके यहां हैयात मुझे ले आई
न होगी मेरी मर्ज़ी फिरभी इक दिन क़ज़ा ले जाई। …संतोभाई ४८
पराधीनको सुख नहीं मिलता याद रख्खो मेरे भाई
चन्द्र शंकरके सरपर रहता पतला होता जाई ,,,संतोभाई ४९
चित्ता मुर्दा मनुष्य देहको आगमे देती जलाई
चिंता ज़िंदा: जिस्म बशरको धीरेसे देती जलाई …संतोभाई ..५०
दरख़तके रंग बदल जाते है जबकि पतझड़ आई
समय आनेपर इन्सानोंके ख्याल बदलते जाई। .. संतोभाई ..५१
प्याज़का था जब बुरा ज़माना लोग मुफ्त ले जाई
वोही प्याज अब महंगी हो गई ग़रीबसे खाई न जाई …संतोभाई ५२
अति पापिष्ट जमारो पारधी धीवर और कसाई
दुनिया मांसाहारको छोड़े सब होव सुख दाई ..संतोभाई ..५३
पापी जनका पाप धोनेको स्वर्गसे गंगा आई
अब वो गंगा मैली होगई कौन करेगा सफाई ..संतोभाई ५४
बैठजातिथि आगोशमे मेरे लब पे लब लगाई
दाढ़ी मुछकी देख सफेदी भागी मुंह मचकोड़ाई ..संतोभाई ५५
बेर बबुलकी झड़ी के बीच सोने वाला आताई
वोही “आताई ” अमरीका आया देखो कैसी जमाई ..संतोभाई ५६ एहि आपके लिए बोनस
अकबरकी बेटीसे जगन्नाथ प्रेममे गया लिपटाई
शादी होगई गंगातटपे गंगा लहरी बन जाई ,,, श्री
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“હરજાઈ ” કવિતામાં વપરાએલા અઘરા શબ્દોના અર્થ
પ્રથમ સંસ્કૃત શ્લોકનો ભાવાર્થ આ શ્લોક ઘણેભાગે વાલ્મિકી રામાયણનો છે .પત્થરો કોઈ દિવસ પાણીમાં તરે પણ સમય એવો હતો .રામ રાવણ યુદ્ધ સમયે કે લંકા માં જવા માટે સમુદ્ર પાર કરવા પાણા તરવા માંડેલા અને પુલ બંધાઈ ગએલો .અને મનુષ્યો રાક્ષસોને મારી શકે ખરા ?પણ રામ ભલે અવતારી હતા પણ એ માણસ હતા .અને તેઓએ રાવણ , કુંભકરણ , ઇન્દ્રજીત ,જેવા રાક્ષસોને મારી નાખેલા .અને વાંદરા પુલ બાંધતી વખતે કામે વળગી ગએલા . એટલેકે સમયની બધી બલિહારી છે .
કડી #5 બાવજૂદ =હોવા છતાં ,
કડી #8 ગદા = ભિખારી
કડી #9 તનખા= પગાર ,વેતન
કડી # 10 નગ્મા =કવિતા , જુબાંપર = મુખ પાઠ . મોઢે
કડી #16 માયુસી = ઉદાસીનતા
કડી #23
ધીવર =માછીમાર, મછીયારો
#28 જુકામ = શરદી કડી
#38 કજા = મૃત્યુ
કડી #40 નિહાં = ગુપ્ત, લુત્ફ = મજા
કડી #41 આગોશ = ખોળો લબ= હોઠ
કડી #54 હયાત=જીવન દરખ્ત = ઝાડ
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BAHOT SUNDAR
प्रिय नरेन् भाई
मेरी हरजाई क्वटामे जो कठिन शब्द है उसका मैंने गुजरती अर्थ लिखा है ‘आप तो हिंदी के अच्छे जानकार हो इसीलिए आपको बर्थ जाननेकी जरूरत नही रहेगी फिरभी उसके अंदर मेरी कोई भूल हो तो मुझे ज़रूर बताना ताकि में सिख सकु ,
प्रिय नरेनभाई
मेने जो ५६ कड़िओं वाली कविता बनाई है उसमे ४ कड़ी और हमने बढ़ाई है जो आपके लिए लिखता हुँ
अकबरकी बेटीसे जगतन्नाथने प्रीति लगाई
गंगा तट पे शादी हो गई गंगा लहरी बन जाई। … संतोभाई ५७
विद्या ,वनिता , और कोई बेली जात न पूछने जाई
जो रहे नित उसकी संगतमे ताहिमे लिपटाई। ..संतोभाई ५८
सैगल ,राजकपूर और खन्नाने इज़्ज़त अच्छी कमाई
मयकश होजानेके सबबसे अपनी जान गवाई …संतोभाई ५९
चेलेष्टि अब्दालाका पति था वो मेरा वेवाई
पौष्टिक भोजन नही करनेसे मगजकी शक्ति गवाई …संतो भाई …६०
शानदार साहेब
પ્રિય નરેન ભાઈ
અંગ્રેજી મને બહુ આવડતી નથી .
કઈ તો આવલ્ત છે આપ માં , હું તો શૂન્ય છું
उज्जयिनी के सम्राट विक्रमादित्य ने 56 ईपू शकों पर विजय के उपलक्ष्य में इस संवत् की स्थापना की थी
काल की गति अजीब होती है। काल पुरुष के खेल निराले हैं। लगभग सभी जिन्दगी में कभी न कभी इस सत्य को महसूस करते हैं। सिर्फ अच्छे और बुरे वक्त के रूप में ही नहीं। भिन्न-भिन्न तरह से सबके संदर्भ अलग होते हैं। सबके परिप्रेक्ष्य भी। मुझे भी कालचक्र की एक माया ध्यान आती रही है। वेदव्यास ने महाभारत के आश्रमवासिक पर्व में लिखा है- ‘सुसूक्ष्मा किल कालस्य गति:’ कि काल की गति अत्यन्त सूक्ष्म है। किसी भुक्तभोगी ने यह भी कहा कि ‘कालस्य कुटिला गति:’ कि काल की गति कुटिल होती है। यह सब उन लोगों के अनुभूत वचन हैं जिन्होंने काल की उठापटक को अपने जीवन में व्यक्तिश: झेला। लेकिन वर्ष प्रतिपदा के इस दिन मैं जिस चीज की ओर ध्यान आकर्षित करने जा रहा हूं, वह एक ऐसा वैचिर्त्य है जो स्वयं काल ने झेला है। एक ऐसी कुटिलता है जो हम मनुष्यों ने काल के साथ खेली है। ठीक ठीक काल के साथ नहीं तो कालान्तर के साथ। कलान्तर यानी कैलेण्डर, आज विक्रम के कैलेण्डर के प्रथम दिन बहुत शिद्दत से यह बात ध्यान आती है। यह दिन हमारी परंपरा में महत्वपूर्ण है, इसलिए नहीं। इसलिए नहीं कि इस दिन ब्रह्मपुराण के अनुसार ब्रम्हा ने प्रलयोपरांत सृष्टि को पुन: रचना शुरू किया गया और समय की टिक-टिक शुरू हुई। इसलिए भी नहीं कि इस दिन को हम अपनी भारतीयता का प्रतीक कह सकते हैं क्योंकि देश के अलग-अलग हिस्सों में यह दिन अलग-अलग नामों से जाना जाता है। गोआ के कोंकणी इसे संवत्सर पडवो कहते हैं, कर्नाटक में बहुत प्यारा नाम है इसके लिए युगादि जो आंध्रप्रदेश में उगादि हो गया है। मराठी इसे गुड़ी पड़वा कहते हैं तो काश्मीरी पंडित नवरेह। कई सभ्यताएं इस दिन को जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है, वर्षारंभ के रूप में देखतीआर्इं, प्राचीन इजिप्ट के लोग इसे जानते थे और पर्शिया में इसे नवरूज के रूप में मानते थे। लेकिन परंपरा, सृष्टि, भारतीयता और सभ्यता के इन चारों पहलुओं की वजह से मैं आपके सामने इस दिन प्रस्तुत नहीं हुआ। मैं तो इसलिए प्रस्तुत हुआ कि यह दिन मेरे निकट परंपरा के विपर्यय का प्रतीक-दिवस बन गया है। किसी सृष्टि का नहीं, बिगड़ने का प्रतीक-दिवस। भारतीयता का नहीं, भारतीयता को चुनौती का दिन। क्यों और कैसे, ये विचारार्थ रख रहा हूं। मैं कालान्तर की बात कर रहा था। कैलेण्डर की। विक्रम संवत् की। आज के दिन विक्रम संवत्सर का आरंभ होता है। कालगणना की भारतीय शैली का। मुझे यह महत्वपूर्ण लगता है कि देश भर में प्राचीन काल से प्रचलित यह संवत् देश को मध्यप्रदेश की देन है। हमारी उज्जैन की। उज्जयिनी के सम्राट विक्रमादित्य ने सन् 56 ईसा पूर्व शकों के ऊपर विजय के उपलक्ष्य में इस संवत् की स्थापना की। यह एक प्रशासक का निर्णय था। एक प्रशासनिक उपलब्धि की स्मृति में था। शक ईरानियन उत्पत्ति की एक सीथियन प्रजाति थे और उन्होंने भारत के विभिन्न हिस्सों को हड़पकर अपना क्षेत्रीय राज्य स्थापित करना शुरू कर दिया था। सीथिया में तब पूर्वी यूरोप तथा मध्य एशिया शामिल था। शक लोग बैक्ट्रिया और खोतान को जीतते हुए उत्तर भारत के काफी भीतर तक भी घुस आए और तब सम्राट विक्रमादित्य ने उन्हें पराभूत कर खदेड़ा था। यह ईसा पूर्व सन् 56 की बात है। इसी प्रशासनिक उपलब्धि को चिरस्थाई बनाने के उद्देश्य से इस संवत् की स्थापना हुई। यह उस प्राचीन समय की एक रीति प्रतीत होती है क्योंकि शक संवत् भी 78 ई. में सातवाहन राजा गौतमी पुत्र शातकर्णी द्वारा शकों को हराने के उपलक्ष्य में स्थापित हुआ था। यानी भारत में कैलेण्डर तब राज्य द्वारा राजकीय सफलताओं को स्थाई राष्ट्रीय प्रेरणाओं में बदलने के उद्देश्य से प्रवर्तित किए जाते थे। जब देश की आन पर विदेशी शक्तियों के आक्रमण से खतरा उमड़ता था, तत्कालीन शासक उसका सफलतापूर्वक निवारण कर कालक्रम की गणना को स्मृति में नियोजित कर देते थे। विक्रम संवत् राष्ट्रीय सफलता के अनुक्रम में था, एक प्रशासक के द्वारा इसका प्रवर्तन हुआ था और एक प्रशासकीय उपलब्धि के संदर्भ में हुआ था। इसके विपरीत हमारे देश में आज बड़ी शान से प्रचलित जनवरी से दिसंबर वाले कैलेण्डर का इतिहास क्या है? इसे हम ग्रेगरी कैलेण्डर के रूप में जानते आए हैं। यह ग्रेगोरियन कैलेण्डर मूलत: एक साम्प्रदायिक कैलेण्डर है। पोप ग्रेगरी त्रयोदश ने 1582 में इसे ईस्टर पर्व मनाने की तिथि को समायोजित करने की दृष्टि से आरंभ किया था। यह कैथोलिक देशों में ही प्रारंभ में स्वीकार किया। प्रोटेस्टेन्ट एवं ईस्टर्न आर्थोडॉक्स राज्यों / देशों ने पूर्व की ही तरह जूलियन कैलेण्डर जारी रखा। ग्रीस ने तो इस कैलेण्डर को अभी पिछली सदी में1923 ई. में जाकर अपनाया। ब्रिटेन और ब्रिटिश साम्राज्य में 1752 ई. में इसे स्वीकार किया गया। रूस में इसे 1918 में क्रांति के बाद अपनाया गया। यों ग्रेगोरियन कैलेण्डर एक धार्मिक गुरू के द्वारा स्थापित किया गया। मेरे प्रश्न और कौतूहल यहीं से शुरू होते हैं। यह कैसे हुआ कि जो धार्मिक और साम्प्रदायिक कैलेण्डर था, वह सिविल और सेकुलर कैलेण्डर बन गया? यह कैसे हुआ कि जो राष्ट्रीय, राजकीय और प्रशासनिक कैलेण्डर था, वह धार्मिक और सांप्रदायिक बन गया? क्या इसे ही बिल्कुल नए अर्थों में समय का फेर कहते हैं? क्या इसीलिए समय को टेनीसन ने धूल बिखेरने वाले एक पागल (अ मेनिआक स्कैटरिंग डस्ट) की संज्ञा दी थी। मुझे याद है कि अभी कुछ वर्षों पूर्व जब एक राज्य सरकार ने आज के दिन वर्ष प्रतिपदा पर अवकाश घोषित किया तो कुछ आलोचकों ने उसे एक सांप्रदायिक कदम कहा था। यह काल के साथ छल ही है कि जो कैलेण्डर विदेशियों की गुलामी से आजादी का उद्घोष था, वह साम्प्रदायिक हो गया और जो कैलेण्डरअंग्रेजों द्वारा औपनिवेशिक दौर में हम पर थोपा गया, वह धर्म निरपेक्ष। यह समय के साथ एक प्रवंचना ही है कि जो कभी राष्ट्रीय था, अब उसे धार्मिक पहचान की परिधि में व्याख्यायित होना है और जो कभी ठेठ धार्मिक था, उसे अब धर्मनिरपेक्ष होने के गौरव से अंलकृत किया जा रहा है। क्या हम इसे सिर्फ काल का अन्तर कहें? या कालोनाइजेशन का कि जिसमें जो अपना है वो पराया बना दिया जाता है। विक्रम संवत् इस बात का प्रतीक भी है कि एक ऐसा भी दौर था जब जो जितना प्रशासनिक था, वह उतना सामाजिक भी था। विक्रम संवत् लोक में रम गया। लेकिन अब चुनौती यह है कि 15 अगस्त व 26 जनवरी भी लोक-पर्व बनें। क्या ठेठ ग्रामीण मन को ये दिन एक ‘निर्मिति’ लगते हैं क्योंकि जिनका उसके संस्कारों से कोई साबका नहीं? स्वतंत्रता संस्कार तब बनेगी जब संस्कार स्वतंत्र होंगे। संस्कारों की आजादी ही आजादी के संस्कार देती है। ऊपर जिस विपर्यय-वैचिर्त्य का मैंने उल्लेख किया, वह देश के ऊपर स्वामित्व का एक विमर्श ही है। इस देश का मालिक कौन है? अथर्ववेद का कहना था कि ‘कालो हि सर्वस्येश्वर:’ यानी काल सारे विश्व का स्वामी है। लेकिन देखिए कि गौरांग महाप्रभुओं और उनकी विरासत वालों ने काल- कैलेण्डर को असलियत की खुरदुरी जमीन पर यह बताने में चूक नहीं की कि मिल्कियत के मायने क्या होते हैं? कैसे किसी देश की भूमि पर कब्जे से ज्यादा उसकी भावना पर अतिक्रमण विकट हो उठता है? यह विस्मय का विषय है या खेद का या आत्मालोचन का, यह हमें ही तय करना होगा।
પ્રિય પ્રજ્ઞા બેન
તમારી રસદાયક કોમેન્ટથી ઘણું જાણવા મળ્યું . મારી આ હરજાઈ વાળી લાંબી કવિતા આતાવાણીમાં મુકીને આપ સહુ ભાઈઓ બહેનો સુધી પહોંચાડવા બદલ હું સુરેશ જાનીનો ઘણો આભારી છું . સાજા સારા નીરોગી આતા ને સમયે પગભાનગીને કેવી પરાધીન દશામાં મૂકી દીધો .
પ્રિય સુરેશભાઈ
આ તમે મારી કવિતા આતાવાણીમાં મૂકી એ બહુ સુંદર કાર્ય કર્યું મારા માટે ઘણું અઘરું હતું . મારા પગનું હાડકું ભાંગ્યું એમાં મારું આખું શરીર ભંગાઈ ગયું છે . ખુબ થાકી જવાય છે એમાં અધૂરામાં પૂરું મારાથી કોઈ વખત આખું લખાણ ભુંસાઈ જાય છે .
મારો ઝાડો પેશાબ મારા દીકરા ડેવિડને ફેંકવા જવો પડે છે . એ મને બહુ વસમું લાગે છે . પેશાબ કોઈ વખત એની વહુ પણ નાખી આવે છે .
આપની આ હરજાઈ વાળી લાંબી કવિતા એ તમારી એક યાદગાર રચના બને એવી છે. અભિનંદન.
AAta, I covered this bhajan in Deshinga book.